धीरज प्रताप मित्र
प्रस्तुत आलेख भारतीय समाज में विवाह, परिवार एवं स्नेह के अलगाव की जटिलताओं का समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से विश्लेषण का प्रयत्न करता है। भारतीय परंपरा में विवाह केवल व्यक्तिगत अथवा दांपत्य संबंध मात्र नहीं अपितु सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था का मूल आधार रहा है। संयुक्त परिवार व्यवस्था, पारस्परिक सहयोग तथा सामूहिकता ने लंबे समय तक स्नेह एवं आत्मीयता को स्थिर बनाए रखा किन्तु आधुनिकता, शहरीकरण, औद्योगीकरण, व्यक्तिवाद और उपभोक्तावाद कि बढती प्रवृत्तियों ने पारिवारिक संरचनाओं में गहरा परिवर्तन उत्पन्न किया। एकल परिवार की बढ़ती प्रवृत्ति, प्रेम विवाह एवं वैवाहिक स्वायत्तता की मांग ने पारंपरिक मानदंडों को चुनौती दी है। इस सबके अतिरिक्त डिजिटल युग और सोशल मीडिया ने रिश्तों को आभासी तथा अस्थायी बना दिया है, जिससे विवाहेतर संबंध (extramarital affairs) जैसी प्रवृत्तियों में वृद्धि हुई है। इस लेख में यह तर्क प्रस्तुत किया गया है कि स्नेह का अलगाव केवल व्यक्तिगत या मनोवैज्ञानिक समस्या नहीं है बल्कि यह सामाजिक संरचनाओं के विघटन के साथ ही भावनात्मक विश्वास की कमजोरी का भी द्योतक है। वर्तमान में बढ़ती तलाक, पारिवारिक अस्थिरता, वृद्धों की उपेक्षा और युवाओं में रिश्तों के प्रति असुरक्षा आदि इसके प्रत्यक्ष परिणाम हैं। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से दुर्खीम की Anomie, मार्क्स की Alienation, वेबर की Rationalization, फ्रॉम की The Art of Loving, गिडेन्स की Pure Relationship एवं बॉमन की Liquid Love जैसी अवधारणाएँ इस संकट की सैद्धांतिक व्याख्या करती हैं। अंततः प्रस्तुत आलेख यह निष्कर्ष निकालता है कि विवाह एवं परिवार के पुनर्परिभाषण तथा संवाद, शिक्षा और सांस्कृतिक मूल्यों के संतुलन द्वारा ही भावनात्मक संकट का समाधान संभव है।
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