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International Journal of Humanities and Education Research
Peer Reviewed Journal

Vol. 7, Issue 1, Part C (2025)

गालियों का समाजशास्त्र

Author(s):

धीरज प्रताप मित्र

Abstract:
गालियाँ केवल अपशब्द नहीं हैं अपितु वे भाषा, समाज तथा संस्कृति के जटिल अंतर्संबंधों को भी प्रतिबिंबित करती हैं। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से देखें तो गालियाँ शक्ति, वर्चस्व, विरोध के साथ ही सामाजिक संरचना की अभिव्यक्ति के रूप में कार्य करती हैं। यह आलेख गालियों के सामाजिक, सांस्कृतिक तथा भाषाई संदर्भों का विश्लेषण करने का प्रयत्न है जिसमें पितृसत्ता, जाति, वर्ग एवं लिंग आधारित असमानताओं की भूमिका पर विशेष ध्यान दिया गया है। जहाँ पितृसत्तात्मक समाजों में गालियों का उपयोग महिलाओं के प्रति दमन तथा वस्तुकरण को दर्शाता है वहीं जातिगत संरचनाओं में ये सामाजिक पदानुक्रम को बनाए रखने का माध्यम बनती हैं। इस सबके अतिरिक्त गालियों का प्रयोग न केवल आक्रोश एवं अपमान जताने हेतु किया जाता है अपितु यह मित्रता, हास्य एवं सामाजिक जुड़ाव का भी हिस्सा होता है। वर्तमान आधुनिक समाज में गालियों का सामान्यीकरण तेजी से बढ़ रहा है विशेषतः मनोरंजन उद्योग, सिनेमा और सोशल मीडिया के प्रभाव में। प्रस्तुत लेख गालियों की बदलती प्रकृति तथा भाषाई परिवर्तन के संदर्भ में उनकी गतिशीलता को भी दर्शाता है। इसके अलावा गालियों पर कानूनी-नैतिक प्रतिबंधों का भी विश्लेषण किया गया है जिससे यह स्पष्ट होता है कि समाज में उनकी स्वीकृति-अस्वीकृति के बीच एक जटिल संतुलन बना रहता है। निष्कर्षतः कहें तो यह लेख दर्शाता है कि गालियों को केवल अशिष्ट भाषा के रूप में नहीं अपितु सामाजिक संरचना, सांस्कृतिक पहचान और विरोध के एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में देखा जाना चाहिए।

Pages: 266-270  |  157 Views  25 Downloads


International Journal of Humanities and Education Research
How to cite this article:
धीरज प्रताप मित्र. गालियों का समाजशास्त्र. Int. J. Humanit. Educ. Res. 2025;7(1):266-270. DOI: 10.33545/26649799.2025.v7.i1c.156
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